मंगलवार, 19 दिसंबर 2006

अंतहीन अभीष्ट

लिखते-लिखते
पहुँच जाते हैं शब्द
अभीष्ट तक।
अंतहीन अभीष्ट......

बहुत अज़ीब बात है,
कुछ मायनों में
बेदुरूस्त शै भी
क़रीने से ज़्यादा
खूबसूरत और लाज़बाब होती है।
हर बार एक ही
आयोजन व प्रयोजन।
थकने की सोचना भी
वफ़ाई की दीवार है।

रोज़ दराज़ों से निकाल-निकाल कर
ख़्वाब,
सजाता रहता हूँ क़ाग़ज़ी फ़र्श पे।
रंगीन सितारों से जलाता रहता हूँ
आशा और प्रतिआशा का दीया।
सुबह का सूरज
और फिर
रात का चाँद।
हर बार यूँही आते भी हैं
और जाते भी।

दराज़ों का खुलना
और बंद होना भी है
जैसे
अंतहीन अभीष्ट।
अंतहीन अभीष्ट......

सोमवार, 11 दिसंबर 2006

तो अच्छा था

ग़र जानता कि ज़िंदगी यहाँ तक लायेगी,
दो घड़ी चैन के जी लेते तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।


सपने में देखा था तुमको,
सरिता के श्यामल जल में।
लगा मुझे सरिता में नहीं
खड़ी हो मेरे ह्रदयतल में।

होठों ने जब छूना चाहा
तेरे रसाक्त अधरों को
वास्तविकता की धरा पायी थी
मैंने दो ही पल में।।


ग़र जानता कि तू नहीं मिल पायेगी
चुन किसी को भी लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास--------


आकाश और पाताल को एक कर देना है,
अभियंता के ज़रिए देश को कुछ देना है।

आते ही जाना मैंने, केवल रेतों की जमीं
पर अब तो कश्ती को खेना है।।


ग़र जानता कि पढ़ाई मुश्किल पड़ जायेगी,
चलाना हल भी सीख लेता तो अच्छा था।
यौवन की प्यास नहीं बुझ पायेगी,
दो घुट नीर के पी लेता तो अच्छा था।।

लेखन-तिथि- २८ नवम्बर २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०६० मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी।

मंगलवार, 5 दिसंबर 2006

शांतप्रहरी

(हालाँकि मैं तुकान्त कविता नहीं लिख पाता, फिर भी एक बार कुछ तुकान्त कविताएँ लिखी थी। इस श्रेणी में आनेवाली दूसरी कविता आपकी नज़र कर रहा हूँ। पहली कुछ कारणों से अभी नहीं प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता मेरे प्रारम्भिक दौर की है, इस लिए वृहद-शब्दकोश के अभाव के कारण तथाकथित कुछ गैरसम्मानित शब्दों का भी समावेश है। सुदंर भाषा प्रेमी मुझे माफ करेंगे!)



हे प्राणेश्वरी, हे कामेश्वरी
मेरे ह्रदय की तुम रागेश्वरी।
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

ये किन कर्मों का फल है कि मैंने तुमको पाया है।
ये बहु-प्रतीक्षित सा समय, मेरे जीवन में आया है।।
ये मूरत तेरी, ये सूरत तेरी, कितनी सुन्दर काया है।
चेहरे से नज़रे हटा न सका, ये तेरी कैसी माया है।।

ये गाल तेरी, ये चाल तेरी
नथूनों में अज़ब सी लाली है।
कमर कहूँ या तिनका मैं?
जुल्फ़ घटा से काली है।।

यह पिंडलियों की स्निग्धता
मुझे मतवाला कर देती है।
यह नितम्बों का भारीपन
तन में मस्ती भर देती है।।

गिरि के उतुंग शिखर जैसे
वक्षों की छटा निराली है।
उभारों के बीच का अंतराल
लगता है कुछ खाली-खाली है।।

तेरे रूप-वर्णन में, शब्दों की चिंता होती है।
कुछ कैसे कहूँ मैं? ज़ुबाँ लब्ज़ का साथ खोती है।।

डर लगता है कि इज़हार-ए-ज़ुबाँ न कर पाया।
मेरे रोम-रोम से गर प्रेम-सुधा न झर पाया।।

तो फिर क्या होगा?

ये सोच मन काँप जाता है।
फिर कुछ समझ न आता है।।

दया करो हे हृदयेश्वरी!
अपने गुलाम पर दया करो।
कुछ तो कसमों की हया करो।।

हे मेरी गुणेश्वरी!
इस कांतिमय मन-मंदिर का
मैं शांतप्रहरी, मैं शांतप्रहरी।।

लेखन-तिथि- ३ जनवरी २००३ तद्‌नुसार विक्रम संवत् २०५९ पौष शुक्ल प्रतिपदा।